Shri Hit Chaturasi Ji
Shri Hit Chaturasi is a collection of 84 verses written by Shri Harivansh Mahaprabhu. It is a scripture of the RadhaVallabh Sampradaya. The verses are a poetic epic for the followers of Rasopasna path and contain the daily leelas of Shri Radha Krishna (Ladali Laal)
चलि सुंदरि बोली वृंदावन ।
कामिनि कंठ लागि किन राजहि, तूँ दामिनि मोंहन नौतन घन ​​॥

चलि सुंदरि बोली वृंदावन

(दूतिका ने श्रीप्रियाजी से कहा- ) हे सुन्दरि ! चलो !! तुम्हें ( प्रियतम ने ) वृंदावन में बुलाया है । हे कामिनि ! तुम तो हो दामिनि जैसी और मोहन नूतन घन की भाँति । तब फिर तुम उनके कण्ठ में ( घन में दामिनि की भाँति ) लग कर क्यों नहीं शोभित होती ? हे प्यारी ! तुम्हारे तन पर जो यह सुरंग कञ्चकि , विविध रंगमयी साड़ी और सोलह श्रृंगार शोभित है तथा श्रीफल जैसे कुच मण्डल नवीन यौवन रूप धन , यह सभी कुछ नवल मोहन के ही लिये तो उचित है ! श्रीहित हरिवंश चन्द्र कहते हैं कि ( श्रीप्रियाजी के ) हृदय में ( श्रीलालजी के लिये ) अत्यन्त प्रीति थी इसलिये प्रसन्न मन होकर ( प्रियतम के निकट ) चल पड़ी और दोनों रस सागर , सघन निकुअ भवन में मिले पश्चात् उन्होंने सुरत युद्ध में शत शत काम देवों को जीत लिया ।

जोई जोई प्यारो करे सोई मोहि भावे
भावे मोहि जोई सोई सोई करे प्यारे ||

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example in hindi

जोई जोई प्यारो करे सोई मोहि भावे
भावे मोहि जोई सोई सोई करे प्यारे ||

example

example in hindi

जोई जोई प्यारो करे सोई मोहि भावे
भावे मोहि जोई सोई सोई करे प्यारे ||

जोई जोई प्यारो करे सोई मोहि भावे

श्री हित चौरासी जी के इस प्रथम पद में श्री राधा, श्याम सुन्दर के हृदय और नेत्रों में विराजमान परस्पर अद्बुध प्रेम का संक्षिप्त एवं अत्यंत मार्मिक वर्णन श्री राधा के मुख से हुआ है। इस पद के वर्णन के समय श्री श्याम सुंदर किसी अन्य कुंज में पुष्प चयन के लिए गए हैं और यह एकांत अवसर देखकर हित सजनी श्री राधा से अपने प्रियतम के अद्बुध प्रेम की चर्चा करने लगती हैं। इस पद में श्री हिताचार्य ने श्री राधा के परम उदार स्वरुप का वर्णन बड़े ही सुन्दर ढंग से किया है। प्रिया जी ने कहा हे सखि, प्यारे श्री लाल जी जो भी कुछ करते हैं मुझे वह सभी प्रिय लगता है और मुझे जो कुछ प्रिय लगता है वह भी वही सब करते हैं। यदि मुझे केवल उनके ही नेत्रों में रहने योग्य सुहावना स्थल है तो वह भी मेरे नैनों की पुतलियां बन जाना चाहते हैं। सखि वह मुझे अपने तन मन और प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं, परंतु उन्होंने तो मुझ पर अपने कोटि-कोटि प्राण न्यौछावर कर दिए हैं। श्री राधा की प्रेम विभोरता से भावित श्री हित सजनी ने कहा - हे राधा कृष्ण श्यामल एवं गौर स्वरुप, आप दोनों वृन्दावन के हंस हंसिनी हैं। आप तो जल और तरंग की तरह एक ही हैं, आपको पृथक कौन कर सकता है।

प्यारे बोली भामिनी, आजु नीकी जामिनी

प्यारे बोली भामिनी

(श्री हित अली ने कहा-) हे भामिनि । (तुम्हें) प्यारे (श्रीकृष्ण) ने बुलाया है। (देखो) आज (कैसी) सुन्दर रात्रि है ? अतः आप नवीन मेघ रूप (श्रीलालजी) से ऐसे भेंटिये (मिलिये) जैसे दामिनि । अरी माई ! मोहन लाल रसिक राज से मान करे भला ऐसी कौन कामिनी होगी? श्री हित हरिवंश चन्द्र कहते हैं कि (सखि के) उक्त शब्द सुनते ही गज गामिनि प्यारी राधिका अपने रमण (प्रियतम) से जा मिली।

प्यारे बोली भामिनी, आजु नीकी जामिनी,
भेंटि नवीन मेघ सौं दामिनी॥

प्यारे बोली भामिनी

(श्री हित सखि ने कहा-) हे भामिनि । (तुम्हें) प्यारे (श्रीकृष्ण) ने बुलाया है। (देखो) आज (कैसी) सुन्दर रात्रि है ? अतः आप नवीन मेघ रूप (श्रीलालजी) से ऐसे भेंटिये (मिलिये) जैसे दामिनि । अरी माई ! मोहन लाल रसिक राज से मान करे भला ऐसी कौन कामिनी होगी? श्री हित हरिवंश चन्द्र कहते हैं कि (सखि के) उक्त शब्द सुनते ही गज गामिनि प्यारी राधिका अपने रमण (प्रियतम) से जा मिली।

प्रात समै दोऊ रस लंपट,
सुरत जुद्ध जय जुत अति फूल।

प्रात समै दोऊ रस लंपट

भावार्थ - प्रातः काल दोनों रस लम्पट सुरत-युद्ध में विजय एवं प्रसन्नता पूर्वक संलग्न हैं। मुख पर श्रम वारि (प्रस्वेद) की सघन बूँदें शुभ्र मौक्तिक जैसी शोभित हैं एवं समस्त अङ्ग प्रत्यङ्गों के आभरण अस्त व्यस्त हैं। (ललाट पटल का) तिलक कुछ कुछ शेष रह गया है। अलकावलि शिथिल (ढीली) हो चुकी है (और बिखर रही है, जिससे ऐसा) विदित होता है कि वदन कमल पर प्रमत्त भ्रमर मँडरा रहे हैं। श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि (युगल किशोर) प्रेम (मदन) के (आनन्द) रङ्ग में रञ्जित हो रहे हैं, उनके नयन वचन, कटि एवं कटि के वस्त्र (सारी आदि) सभी तो शिथिल हैं।

प्रात समै दोऊ रस लंपट,
सुरत जुद्ध जय जुत अति फूल।

प्रात समै दोऊ रस लंपट

प्रातः काल दोनों रस लम्पट सुरत-युद्ध में विजय एवं प्रसन्नता पूर्वक संलग्न हैं। मुख पर श्रम वारि (प्रस्वेद) की सघन बूँदें शुभ्र मौक्तिक जैसी शोभित हैं एवं समस्त अङ्ग प्रत्यङ्गों के आभरण अस्त व्यस्त हैं। (ललाट पटल का) तिलक कुछ कुछ शेष रह गया है। अलकावलि शिथिल (ढीली) हो चुकी है (और बिखर रही है, जिससे ऐसा) विदित होता है कि वदन कमल पर प्रमत्त भ्रमर मँडरा रहे हैं। श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि (युगल किशोर) प्रेम (मदन) के (आनन्द) रङ्ग में रञ्जित हो रहे हैं, उनके नयन वचन, कटि एवं कटि के वस्त्र (सारी आदि) सभी तो शिथिल हैं।

आजु तौ जुवति तेरौ वदन आनंद भरयौ,
पिय के संगम के सूचत सुख चैन।

आजु तौ जुवति तेरौ वदन आनंद भरयौ

हे युवति ! तुम्हारा जो यह मुख आनन्द से प्रफुल्लित है उसी से तुम्हारे प्रियतम सङ्गम जनित सुख की सूचना मिल रही है। जैसे तुम्हारे बोल आलस्य से लटपटाये हुए हैं वैसे ही तुम्हारे कपोल भी सुरंग (ताम्बूल पीक) से रँग गये हैं। दोनों नयन विशेष थकित से, अरुण एवं उनींदे हैं । ललाट पर तिलक भी लेश मात्र ही रह गया है। वेणी से पुष्प खिसक खिसक कर गिर रहे हैं और सिर में मानों आपने सीमन्त रेखा भूषित ही नहीं की है। तुम बड़ी उदार हो हे उदार स्वामिनी जब तुम श्रीलालजी के लिए अपने अघरासव का दान करने लगती हो तब कुछ भी शेष नहीं रखती, (सर्वस्व दे डालती हो।) हे भीरु ! अब (रात्रि के अंधकार में धोखे से बदले हुए) प्रियतम के इन वस्त्रों को क्यों छिपा रही हो? हे स्वामिनि ! तुम ऐसी रस विचक्षणा हो कि श्याम को शत् शत मदन की घातों (शिक्षा) के द्वारा अपना वशवर्त्ती कर लिया है।" श्रीहित हरिवंश चन्द्र कहते हैं "अहो ! तुम्हारे तो उर की माला भी कुम्हला गयी है तथा किङ्किणी जाल भी शिथिल है, अतः निश्चित है कि तुमने अवश्य ही लता गृह में शयन विलास किया है।"

आजु प्रभात लता मंदिर में,
सुख वरषत अति हरषि जुगल वर।

आजु प्रभात लता मंदिर में

मंगल प्रभात की वेला में हर्षोन्मादित युगल किशोर अलसाये हुए लटक लटक कर लता भवन की मंजुल भूमि पर मादक गति से चलते हैं। वृन्दावन निकुञ धाम में सूरत-विलासी श्रीश्यामसुन्दर की मालाएँ श्रीराधा के हृदय देश के केशर लेप से मण्डित हैं। इसी प्रकार श्रीप्रियाजी के श्रीअंगों में प्रेम चिह्न (नख क्षत) अलंकृत हैं, जिन्हें चतुर शिरोमणि लाल ने अपने हाथों से चित्रित किया है। श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि अत्यधिक प्रेम उल्लसित दम्पति मधुर मधुर गान करते हुए एक दूसरे का मन हरण कर रहे हैं, और उस गान के साथ प्रशंसा परायण सखियाँ अपना मधुर तर स्वर मिला रही हैं।

कौन चतुर जुवती प्रिया, जाहि मिलत लाल चोर ह्वै रैंन।

कौन चतुर जुवती प्रिया, जाहि मिलत लाल चोर ह्वै रैंन

(श्रीहित अलि ने कहा-) हे लाल ! ऐसी कौन चतुर युवती प्रेयसी है (जिससे) आप रात्रि में चोरी चोरी मिलते हैं ? हे प्यारे ! आनन्द विलास रंजित एवं सुख पूरित आपके नयन भला कहीं छिपाने से छिप सकते हैं? वक्षस्थल पर ये नख चन्द्र के चिह्न पलटे हुए पराये वस्त्र और तिस पर यह अटपटे से बोल ? बहुत स्पष्ट है कि रसिक राधापति ! आप मदन के द्वारा विशेष प्रमथित कर दिये गये हैं।

आजु निकुंज मंजु में खेलत, नवल किसोर नवीन किसोरी |

आजु निकुंज मंजु में खेलत

सुन्दर निकुंज मंदिर में नवल किशोर श्याम एवं नवल किशोरी श्री राधा रस क्रीड़ा संलग्न हैं। दोनों का पारस्परिक अनुराग भी अति अनुपम है। यह अनोखी जोड़ी भूतल (स्थित श्रीवृन्दावन) में ही सुनी एवं देखी जाती है। निकुंज मंदिर की भूमि दिव्य मूँगा स्फटिक आदि नाना मणियों से खचित है। उस मणिमय भूमि पर नव कर्पूर की रज बिखर रही है। सुकोमल नव पल्लव रचित एक शय्या सुशोभित है। उस शय्या पर श्याम सुन्दर ने श्री प्रिया जी को आग्रह पूर्वक विराज मान किया है। भाव यह है कि उन्हें निकुंजारतगत शय्या में पौढ़ाया है। हास परिहास परायण युगल किशोर ने परस्पर कपोल-कमल पर ताम्दूल की पीक अंकित करके रस विस्तार किया है। उस समय गौर-श्याम का बाहु कलह बड़ा मनोहर प्रतीत होता है। पश्चात् श्याम सुन्दर श्री प्रियाजी के कटि बन्धन मुक्त करने का सरस प्रयास करते हैं। श्रीराधा प्रियतम के उज्जवल वक्ष में अपनी छवि देखकर विभ्रम से व्याकुल तथा मान-युक्त हो जाती हैं। तब प्रियतम उनके अत्यन्त सुन्दर चिबुक को सहलाकर अनुनयपूर्ण निवेदन करते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि यह आपकी सुन्दर छवि का ही प्रति बिम्ब है। श्री हित हरिवंश कहते हैं कि इस प्रेम कलह में श्री प्रिया के मुख से 'नेति-नेति' वचनामृत सुनकर ललितादि सहचरी छिपकर चोरी चोरी इस प्रेम कलह का दर्शन कर रही हैं। श्री प्रिया जी ने हाथापाई करते हुए प्रणय कोप वश श्री लाल जी के वृक्ष स्थल की मालाएँ तोड दीं।

अति ही अरुन तेरे नयन नलिन री।

अति ही अरुन तेरे नयन नलिन री

अरी सखि ! आज तुम्हारे नयन कमल बड़े अरुणिम हैं। रात्रि भर विलास एवं जागरण के चाव से अत्यन्त आलस्य युक्त हो रहे हैं। मिलन के गौरव से गर्वित, प्रेम रंग से छलक रहे हैं एवं कज्जल रंजित श्यामलता से शोभित है। सम्मोहन कारी नयनों की थकित पलकों में युग गोलक की मंथर गति ने मोहन मृग (श्रीश्याम सुन्दर) को वेध सा दिया है वे रस मुग्ध अवस्था में गति हीन से हो गये हैं। श्रीहित हरिवंश कहते हैं- हे मरालवत् सुन्दर गति शीले ! तुम तो एक ओर भ्रमरों को अपने नेत्रों की सुन्दरता से कमल का संभ्रम उत्पन्न कर रही हो तथा दूसरी ओर अपनी सुन्दर मराल गति द्वारा सखियों से रात्रि के रति विलास के गोपन की चेष्टा करती हुई प्रिय संगम के रहस्य का संशय उत्पन्न कर रही हो मानो कि तुमने प्रियतम से समागम ही प्राप्त नहीं किया हो।

बनी श्रीराधा मोहन की जोरी।
इंद्रनील-मनि स्याम मनोहर, सात कुंभ-तनु गोरी॥

बनी श्रीराधा मोहन की जोरी

अति अनुपम जोड़ी है श्रीराधा मोहन की। मनोहर श्याम सुन्दर इन्द्र नील मणि की भाँति हैं। तो वृषभानु किशोरी श्रीराधा काञ्चन तनु हैं। लाल के विशाल भाल पर तिलक शोभित है, तो कामिनि प्रिया की केश चन्द्रिका के मध्य (माँग) में रोरी लसित है। मोहन लाल की गति (चाल) मत्त गजराज जैसी मोहक और श्रीवृषभानु नन्दिनी की मत्त करिणी जैसी मद मंथर है। नव तरुणि श्रीराधा के श्रीअंग में नीलाम्बर शोभित है और श्याम सुन्दर के श्यामाङ्ग पर पीत कौशेय धारण है। उपरोक्त नख शिख श्रृंगार की पूर्णता शिरोभाग पर लसित अरुण खोरी (छोर) कर रहा है। श्रीहित हरिवंश कहते हैं यह जोड़ी सौन्दर्य एवं रस की सीमा है। राधापति श्रीकृष्ण रसिक चूड़ामणि हैं और श्रीराधा सुरत रस सिन्धु रूपा हैं।

आजु नागरी किसोर, भाँवती विचित्र जोर,
कहा कहौं, अंग अंग परम माधुरी।

आजु नागरी किसोर, भाँवती विचित्र जोर

आज रस विदग्धा श्रीराधा एवं ललित नायक श्याम सुन्दर अनुपम छटा से शोभित हैं। अंग प्रत्यंग से प्रस्फुट रूप माधुर्य्य अवर्णनीय है। सहचरि परिकर में अनुराग विवश युगल, परस्पर स्कन्ध वाहु परिवेष्टित, कपोल का स्पर्श किये हुए सरस रास लास्य का विस्तार करते हैं। सुन्दर श्यामा-श्याम के रास विहार में वंशी मृदंग और तार वाद्यों का मधुर घोष क्षरित है एवं श्रीअंग पर धारण नूपुर किंकिणी वलयादि आभूषणों का मधुर सिंजन स्वर सम्मिलित है। नृत्यगति शीला श्रीराधा की तीव्र नृत्य गति को देखकर स्वामिनी की अंग भूता रस विमुग्धा हित अलि अपने प्राणों को बारम्बार न्यौछावर करती हैं।

नंद के लाल हरयौं मन मोर ।
हौं अपने मोतिनु लर पोवति, काँकरी डारि गयो सखि भोर ।।

नंद के लाल हरयौं मन मोर

श्रीप्रियाजी ने कहा- “ सखि ! नन्द नन्दन ने तो मेरा मन हर लिया है । मैं अपने भवन में बैठी मुक्ता माल पिरो रही थी उन्होंने सबेरे सबेरे मुझ पर काँकरी फेंक कर मेरी तन्मयता भंग करके अपनी ओर आकृष्ट कर लिया । नयनाभिराम रसघन मोहन मूर्ति नन्द किशोर की तिरछी चितवन एवं मद मत्त पद गति को देखकर तथा उनके अधरों से मधुर रस पूर्ण वंशी स्वर को सुनकर किस प्रकार मन स्थिर रह सकता है ? चंद्र समान श्याम के मुख दर्शन के लिये मेरे नेत्र चकोर समान तृषित हैं । श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि श्रीप्रिया मुख से उपरोक्त बात सुनकर ( सखी ने कहा कि हे युवति ! तुम प्राणों को न्यौछावर करती हुई अपने प्रियतम रसिक वर लाल का मिलन प्राप्त करो ।

जोई जोई प्यारो करे सोई मोहि भावे
भावे मोहि जोई सोई सोई करे प्यारे ||

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अधर अरुन तेरे कैसे कै दुराऊँ ।
रबि ससि संक भजन कियौ अपबस

अधर अरुन तेरे कैसे कै दुराऊँ

(हित सखि ने कहा -) हे रसिक वर लाल ! आपके अत्यन्त अरुण अधरों का राग किस प्रकार छिपाऊँ ? यदि मैं कदाचित् उन अधरों की अद्भुतता कुसुम रंगों से रंजित करूँ तो भी मुझे रवि शशि रूप प्रेम की आशङ्का है । (अर्थात् ताप शैत्य उभय गुण विशिष्ट प्रेम आपके अधरों में वैवर्ण्य, शुष्कता, कम्पन आदि रूपों में प्रियतमा दर्शन के समय प्रकट हो ही जायगा । तब मेरा रङ्ग निर्माण रूप प्रयास व्यर्थ होगा ।) यदि आपके कौस्तुभ मणि को उज्वल कौशेय वस्त्रों से छिपा दिया जाय और पङ्कज पराग के लेपन पूर्वक आपकी श्याम अंग कान्ति का अदर्शन भी कर दूँ किन्तु जब जलद अवगुण्ठन से निर्मुक्त चन्द्रमा की भाँति आपका श्रीमुख उल्लसित हो उठेगा (और इससे आपका भेद खुलने लगेगा, तब मैं वहाँ पर श्रीप्रिया के सम्मुख) कौन सा मिष (संभ्रम) उपस्थित करूँगी ? तब तो उस समय यहाँ पर श्रीप्रियाजी के समक्ष न शीतल वचन काम देंगे और न दम्भ, छल या कृत्तिमता ही सफल हो सकेगी । अरे! जब चन्द्रवत! शीतल स्वभाव मयी श्रीप्रिया ही तप्त (कुपित) हो उठेंगी तब मैं उन्हें किन वचनों के द्वारा शान्त व प्रबोधित करूंगी । श्रीहित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु कहते हैं "किन्तु फिर भी हे रसिक नायक प्रियतम! आपके खञ्जन वत् चपल नयनों का श्रीराधा की भृकुटियों से अवश्य मिलन करा दूंगी ।"

आजु देखि व्रज सुन्दरी मोहन बनी केलि।

आजु देखि व्रज सुन्दरी मोहन बनी केलि

(श्रीहित सजनी कहती हैं-) "सखियों! देखो आज ब्रज सुंदरी श्रीराधा और मोहन की क्रीड़ा (कैसी भली) बनी है। रूप की राशि युगल किशोर परस्पर एक के स्कन्ध पर दूसरे की बाहुलता लपेट कर ऐसे शोभित हैं मानो तमाल (द्रुम) से सरस स्वर्ण बेलि लिपट रही हो। नव निकुञ्ज में भ्रमर समूह का सुन्दर और मधुर गुञ्जार हो रहा है। गुञ्जार क्या है प्रेमपुञ्ज है उस गुञ्जन से अपना-अपना स्वर मिलाकर मयूर और कोयल भी गान कर रहे हैं। इधर युगल किशोर भी अंग-अंग से प्रेम मुदित होकर बीच बीच में सुरत आनन्द ले रहे हैं और हरिवंश चन्द्र (सजनी रूप से) इस आनन्द रस को अपने नयन पात्रों में झेल कर प्रति पल पान कर रहे है।(अर्थात् दर्शन का रस पी रहे हैं)

सुनि मेरो वचन छबीली राधा, तैं पायो रस सिंधु अगाधा ।।

सुनि मेरो वचन छबीली राधा

"हे छविमयी राधे ! तू मेरी बात सुन ! तूने रस का गम्भीर समुद्र पाया है । यद्यपि तू वृषभानु गोप की ही बेटी है, फिर भी तूने प्रसन्नता पूर्वक रसिक मोहन लाल का आलिंगन किया है, जिन श्रीकृष्ण का नमन ब्रह्म और उमापति शङ्कर भी करते है, तूने उन्हों से फूल विनाये (चुनवाये) हैं । आरी ! जिस श्रीकृष्ण (परम पुरुष भगवान) के रस (लीला, प्रभाव, गुण माहात्म्य आदि) के लिये श्रुतियों ने भी (असमर्थता पूर्वक) नेति नेति कह दिया तूने तो उसका भी अधर रस पान किया है। राधे ! तेरा रूप तो कुछ कहने में ही नहीं आता, हित हरिवंश तो तेरा कुछ थोड़ा सा सुयश मात्र ही गा रहा है |

तेरे नैंन करत दोऊ चारी ।
अति कुलकात समात नहीं कहुँ मिले हैं कुंज विहारी ॥

तेरे नैंन करत दोऊ चारी

[हे राधे !] तेरी दोनों आँखें ही तो चारी (चुगल खोरी) कर रही हैं, बता रही हैं ! कितनी प्रसन्न है ये ? इनकी प्रसन्नता मानो कहीं समाती नहीं [इसी से विदित होता है कि तुझे कहीं न कहीं कुञ्ज बिहारी] (श्रीलालजी) [अवश्य] मिले हैं। अरी ! तेरी माँग भी तो विखर गयी है और उसमें से फूल झर झर कर गिर पड़ते हैं साथ ही केश लट भी (कबरी से) अलग ही लटक रही है। हे प्यारी ! छिपाती क्यों हो ? वक्ष स्थल पर चिह्नित नख रेखा कितनी स्पष्ट देख रही हूँ मैं । सुकुमारी के अधर फीके हो चुके हैं एवं सुन्दर कपोलों पर पीक भी अङ्कित है । श्रीहित हरिवंश चन्द्र [सखी भाव से] कहते हैं "अहो रसिक मणि भामिनि ! तेरे अङ्ग–अङ्ग में कितना भारी आलस्य है, [जो रात्रि के जागरण एवं रति श्रम का द्योतक हैं ।]

नैंननिं पर वारौं कोटिक खंजन ।
चंचल चपल अरुन अनियारे, अग्रभाग बन्यौ अंजन ।।

नैंननिं पर वारौं कोटिक खंजन

( हे राधे ! तुम्हारे ) नयनों पर मैं कोटि कोटि ख़ंजनों को भी न्यौछावर कर दूँ । ( कितने सुन्दर हैं तुम्हारे नयन ? ) चंचल हैं , अत्यन्त चपल हैं , अरुण है और अनियारे – कोर दार भी । तिस पर उनके अग्र भाग में और अंजन भी लग रहा है । इन नयनों का रुचिर , मनोहर एवं कटाक्ष पूर्ण बक्र ( तिरछा ) नयन अवलोकन तो सुरत युद्ध में ( विपक्षी ) दल का मथन ही करने वाला है । ” श्रीहित हरिवंश चन्द्र कहते हैं- ” सखी ! इनकी छवि तो कुछ कहते ही नहीं बनती । अरी ! ये तो सुख समुद्र हैं और मन का रंजन करने वाले भी ।”

आजु गोपाल रास रस खेलत,
पुलिन कलपतरु तीर री सजनी ।

आजु गोपाल रास रस खेलत

( श्रीहित सजनी ने कहा – ) अरी सजनी ! आज विमल कल्पवृक्ष के तीर यमुना पुलिन पर श्रीगोपाल लाल रास क्रीड़ा कर रहे हैं । सजनी ! जैसा निर्मल शरद का समय है वैसा ही सुन्दर चन्द्रमा आकाश में शोभित है और रोचक त्रिविध ( शीतल मन्द सुगन्धित ) पवन भी बह रहा है । अरी सखी ! देख तो चम्पा , मौलिश्री और मालती कैसी सुन्दर फूली हैं एवं कोयल भी कैसी मुदित और प्रेम मतवाली हो रही है ! अरी वीर ! देसी और सुधंग ( नृत्य ) का राग रँग कितना भला है और ब्रज युवतियों की अपार भीड़ भी ( कितनी भली ) है ! श्रीहित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु कहते हैं – सजनी ! इन्द्र ने प्रसन्न होकर दुन्दुभी बजायी है और [ रास रस से विह्वल होकर ] परमधीर मुनियों ने भी अपना [ मौन ध्यान आदि ] व्रत छोड़ रखा है । [ वे रसमग्न हुए रास नृत्य का दर्शन कर रहे हैं ] प्यारी सखी ! आज श्यामा ( श्रीराधा ) मग्न मन हैं रास में और मदन ( प्रेम ) की घनीभूत पीड़ा का हरण कर रही हैं ।

आज नीकी बनी श्रीराधिका नागरी।

आज नीकी बनी श्रीराधिका नागरी

“हे सखि ! आज नागरी राधिका बड़ी नीकी (सुन्दर) बनी हैं। वे समस्त ब्रज युवती समूह में रूप, चातुर्य शील श्रृंगार एव गुण सभी बातो में सबसे बढ़ी-चढ़ी श्रेष्ठ हैं।उनके दाहिने हाथ में कमल है और वे अपनी बायीं भुजा सखि के कंघे पर रखे हुए सब सहचरियों से मिलकर सरस एव मधुर राग का स्वर पूर्वक गान कर रही हैं। श्रीहित हरिवंश चंद्र कहते हैं -" ये राधा समस्त विद्याओं की ज्ञाता है।अहो ! वे आज बड़भागी श्रीश्यामसुन्दर से रहस्य निकुंजवर मंन्दिर में (आनंद पूर्वक) मिल रही हैं” ।

राधे देखि वन की बात।
रितु बसंत अनंत मुकुलित कुसुम अरु फल पात ॥

राधे देखि वन की बात

प्यारी राधे ! श्रीवृन्दावन की छटा तो देखो ! बसंत ऋतु अनन्त पुष्प फल और पत्रों से मुकुलित है-खिली हुई है। (ऐसे समय में) वेणु ध्वनि के द्वारा श्रीनन्द लाल ने तुम्हें बुलाया है फिर (तुम उस ध्वनि को सुनकर भी) आलस्य क्यों कर रही हो ? हे भामिनी ! विलम्ब किस लिए कर रही हो, देखो (कैसा सुंदर) अवसर व्यर्थ जा रहा है ! श्रीहित हरिवंश चंद्र (सखी रूप से) कह रहे हैं- "अहा ! तुम दोनों की कैसी सुन्दर जोड़ी बनी है जो (दोनों ओर से) अनेक गुण समूह से मत्त है--परिपूर्ण है, जैसे श्रीलालजी मरकत मणि जैसे छविमय है वैसे ही तुम भी कनक वपु हो ।"

आजु बन राजत जुगल किसोर ।
नंद नँदन वृषभानु नंदिनी उठे उनीदें भोर ।।

आजु बन राजत जुगल किसोर

आज श्रीवृन्दावन में युगलकिशोर श्रीश्यामाश्याम शोभायमान हैं। श्रीनन्दनन्दन और श्रीवृषभानुनन्दिनी सम्पूर्ण रात्रि प्रेम विहार करने के बाद उनींदी अवस्था में प्रातःकाल उठे हैं। उनके चरण डगमगाते हुए पड़ रहे हैं और उनकी गति शिथिल हो रही है । (डगमगाने के कारण) चलते हुए दोनों एक दूसरे को वसनाञ्चलों का – पट छोरों का अपने अपने नख चन्द्र से स्पर्श करते ( -एवं आकर्षण करते हैं । )। (अब श्रीयुगल के अंगों में उदित सुरत-चिहों का वर्णन करते हुए कहते हैं) उनके अधर खण्डित हैं, कपोल काजल की रेखाओं से मण्डित हैं और श्रमजल के बार-बार पोंछने से उनके मस्तक पर तिलक कुछ ही शेष रह गया है। (प्रेम-रसासव पान से) अरुण नयन , जो चोर अलि – भ्रमर ही हैं केश राशि एवं उँगलियों के द्वारा छिपाये जाने पर भी नहीं छिपते -गोप्य रस पूर्ण रति विहार का प्रकाश किये ही दे रहे हैं । श्रीहित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु कहते हैं कि सुरत समुद्र की झकझोर के कारण ( आज दोनों को अपने अपने ) तन एवं मन की भी संभाल नहीं रह गयी है , ( ऐसे रस मग्न हो रहे हैं ! )

बैठे लाल निकुंज भवन ।
रजनी रुचिर मल्लिका मुकुलित त्रिविध पवन ।।

बैठे लाल निकुंज भवन

श्री हित सखी ने फिर कहा- “ हे मानिनि [श्री राधे] ! लाल ( तुम्हारी प्रतीक्षा करते हुए ) निकुञ्ज भवन में बैठे हैं । ( इस समय ) कैसी सुन्दर रुचि दायक रात्रि है , मल्लिकाएँ खिल रही हैं और शीतल , सुगन्धित पवन धीरे धीरे बह रहा है । ( ऐसे अवसर में ) हे सखी ! केवल एक तू ही है जो अपनी काम केलि के द्वारा मन मोहन के मदन ( ताप ) का दमन ( शमन ) कर सकती है , तब हे कृशोदरि ! व्यर्थ विलम्ब क्यों कर रही हो ? कारण क्या है ? श्रीहित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु कहते हैं कि अपने कानों यह सुनते ही श्रीप्रियाजी को तन सुधि का भी विस्मरण हो गया ( -वे श्रीलालजी के विरह दुःख से अत्यन्त विह्वल होकर ) शीघ्रता पूर्वक चल पड़ीं तब रस लम्पट रमण श्रीलालजी श्रीराधिका से मिले ।

प्रीति की रीति रँगीलोइ जानै।
जछपि सकल लोक चूड़ामनि दीन अपनपौ माने।।

प्रीति की रीति रँगीलोइ जानै

प्रीति की रीति तो केवल रँगीले गीले (प्रेमी) श्रीलालजी ही जानते हैं, अन्य कोई नहीं; तभी तो वे समस्त लोकों के अधिनायक-सिर मौर होकर भी अपने आप को (प्रेम परवश) दीन (लघु) मानते है। जब यमुना पुलिन पर निकुञ्ज भवन में श्रीराधिका मान ठान कर मानिनि हो जाती है (या रूठ कर अन्यत्र चली जाती है तब ये अपने निकट कोटि कोटि कामिनियों के होते रहने पर भी अपने मन में धैर्य नहीं लाते , (व्याकुल हो हो जाते हैं अपनी प्रियतमा के बिना।) श्री हित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु कहते हैं( किंतु उपरोक्त एक निष्ठा के विपरीत) जो प्रेम चपल भ्रमर के भाँति (क्षण क्षण में) अन्य अन्य किन्हीं से बनता (और विगड़ता भी) रहता है वह तो विनाशी है, नश्वर है। (किमधिकं प्रेम ही नहीं है।) (अब) जो (उपासक प्रेमा) श्रीलालजी को भी छोड़ (अलग रख) कर इस (प्रेम मर्यादा) मैंड़ को पहचानता है वही चतुर है-सच्चा विवेकी है।

प्रीति न काहु की कानि बिचारै ।
मारग अपमारग विथकित मन को अनुसरत निवारै ।।

प्रीति न काहु की कानि बिचारै

प्रीति किसी की मर्यादा नहीं मानती । अरे ! प्रेम से विशेष विवश मन को किसी मार्ग कुमार्ग की ओर जाने से कौन निवारण कर सकता है ? श्रावण मास के जल से उमंगे भरती हुई नदी जैसे सीधे समुद्र की ही ओर दौड़ती है और जिस प्रकार ( बहेलिये के द्वारा गाये हुए मधुर ) नाद में ही मन दिये हुए कुरंग ( हरिन ) को बहेलिया प्रत्यक्ष रूप से मार डालता है, परन्तु फिर भी इनको बहने और मरने से कोई निवृत्त नहीं कर सकता । उसी प्रकार शलभ दीपक की अटक ( आसक्ति ) में अपने देह को भी जला डालता है , ( वह भी किसी मर्यादा को स्वीकार नहीं करता । ) श्रीहित हरिवंश चन्द्र (महाप्रभुपाद) कहते हैं कि नवल मोहन जैसे निपुण नायक ( प्रेमी ) के सिवाय और कौन ऐसा है जो ( प्रेम में ) अपना अपनापन – स्वाभिमान भी खो दे या हार जाय ।

अति नागरि वृषभानु किसोरी।

अति नागरि वृषभानु किसोरी

(श्रीलालजी ने कहा-) हे दूतिके !सुन; वृषभानु किशोरी अत्यन्त चतुर है, जब वह चपल मृगलोचनि गोरी अपने मनोहर नेत्रों से अवलोकन करती है तो मानो उसी क्षण-देखते ही चित्त का आकर्षण कर लेती है। उस नागरी की देह प्रभा स्वर्ण की सी है तथा ह्रदय देश है श्रीफल (नारियल) के भाँति । कटि प्रदेश सिंह जैसी है और (उसमें इतने गुण हैं) मानो वह गुण रूप समुद्र में अच्छी तरह सराबोर की हुई है। उस शत शत चन्द्र जैसे मुखमयी-शत मयङ्क मुखी वेणी क्या है, मानो भुजंग ! (चिकनी-चिकनी) कदली जैसे ऊरु प्रदेश हैं और चरणों में ऐसी गति है मानो उसने जलचर-हंस की चाल ही छीन ली है।" हे हरिवंश दूतिके ! (ध्यान पूर्वक) सुन ! आज संध्या समय मेरी अपनी जोड़ी (अत्यन्त अन्तर प्रिया आत्म स्वरूपा श्रीराधा) को वन में अवश्य ही मिला । यद्यपि यह भामिनि मानवती है फिर भी वह अपने स्वभाव से भली और भोली है । (तेरे द्वारा मेरा निवेदन) सुन क

चलि सुंदरि बोली वृंदावन ।

चलि सुंदरि बोली वृंदावन

(दूतिका ने श्रीप्रियाजी से कहा- ) हे सुन्दरि ! चलो !! तुम्हें ( प्रियतम ने ) वृंदावन में बुलाया है । हे कामिनि ! तुम तो हो दामिनि जैसी और मोहन नूतन घन की भाँति । तब फिर तुम उनके कण्ठ में ( घन में दामिनि की भाँति ) लग कर क्यों नहीं शोभित होती ? हे प्यारी ! तुम्हारे तन पर जो यह सुरंग कञ्चकि , विविध रंगमयी साड़ी और सोलह श्रृंगार शोभित है तथा श्रीफल जैसे कुच मण्डल नवीन यौवन रूप धन , यह सभी कुछ नवल मोहन के ही लिये तो उचित है ! श्रीहित हरिवंश चन्द्र कहते हैं कि ( श्रीप्रियाजी के ) हृदय में ( श्रीलालजी के लिये ) अत्यन्त प्रीति थी इसलिये प्रसन्न मन होकर ( प्रियतम के निकट ) चल पड़ी और दोनों रस सागर , सघन निकुअ भवन में मिले पश्चात् उन्होंने सुरत युद्ध में शत शत काम देवों को जीत लिया ।

चलि सुंदरि बोली वृंदावन ।

चलि सुंदरि बोली वृंदावन

(दूतिका ने श्रीप्रियाजी से कहा- ) हे सुन्दरि ! चलो !! तुम्हें ( प्रियतम ने ) वृंदावन में बुलाया है । हे कामिनि ! तुम तो हो दामिनि जैसी और मोहन नूतन घन की भाँति । तब फिर तुम उनके कण्ठ में ( घन में दामिनि की भाँति ) लग कर क्यों नहीं शोभित होती ? हे प्यारी ! तुम्हारे तन पर जो यह सुरंग कञ्चकि , विविध रंगमयी साड़ी और सोलह श्रृंगार शोभित है तथा श्रीफल जैसे कुच मण्डल नवीन यौवन रूप धन , यह सभी कुछ नवल मोहन के ही लिये तो उचित है ! श्रीहित हरिवंश चन्द्र कहते हैं कि ( श्रीप्रियाजी के ) हृदय में ( श्रीलालजी के लिये ) अत्यन्त प्रीति थी इसलिये प्रसन्न मन होकर ( प्रियतम के निकट ) चल पड़ी और दोनों रस सागर , सघन निकुअ भवन में मिले पश्चात् उन्होंने सुरत युद्ध में शत शत काम देवों को जीत लिया ।

आवति श्रीवृषभानु दुलारी ।
रूप रासि अति चतुर सिरोमनि अंग अंग सुकुमारी ॥

आवति श्रीवृषभानु दुलारी

श्रीहित सखी ने कहा- हे सखियो अत्यन्त चतुर शिरोमणि, रूप की राशि (अपार रूपवती) एवं अङ्ग–अङ्ग में परम सुकुमारी श्रीवृषभानु दुलारी आ रही हैं। उन्होंने प्रथम तो उबटन पूर्वक स्नान किया है और तत्पश्चात् अपने श्रीअङ्ग पर नील वर्ण की सारी सज्जित की है। उनकी अलक-लटें गुँथी हुई हैं, ललाट पटल पर सुन्दर तिलक किया गया है और सिन्दूर से माँग भी सँवारी गयी है। श्रीराधा के मृग छौने के से सुन्दर नयन अञ्जन से युक्त कजरारे है और (उन नयनों की नोकों से आगे क्रमशः आगे बढ़ती हुई) रुचिर (कज्जल) रेखा (नेफा) अनुसारी गयी है। सखि! ललित नासिका पुट पर मणि जटित लवङ्ग (स्वर्ण पुष्प) शोभित है और दन्त पंक्ति भी (ताम्बूल, मिस्सी आदि रङ्गों से रंगी हुई गहरी ललामी से) राग रञ्जित सी दिख रही है। कँसूभी कथुकि के द्वारा कसे हुए श्रीफल जैसे उरोजों के ऊपर लहराते हुए हारों की छवि कुछ न्यारी (विलक्षण) ही है। अहा! कटि तो अत्यन्त कृश (पतली) है, उदर पर गम्भीर नाभि कुण्ड है और जघन तथा नितम्ब पुष्ट हैं-विशाल हैं । श्रीहित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु कहते हैं “वृषभानु दुलारी विविध भूषणों से भूषित अपनी कमल नाल सी कमनीय वाहु लता को श्रीश्याम सुन्दर के कन्धे (अंस) पर डाल कर ऐसे विहार कर रही हैं जैसे कोई गज गजी-करि करिणी युगल । हे सखि ! इस प्रकार श्रीवन वृन्दावन में पिय प्यारी (सदा) विहार ही करते रहते हैं।”

वन की लीला लालहिं भावै ।
पत्र प्रसून बीच प्रतिबिंबहिं नख सिख प्रिया जनावै ।।

वन की लीला लालहिं भावै

श्रीलालजी को वन की लीला बड़ी प्यारी लगती है, तभी तो उन्हें वहाँ के फूल पत्तों पर पड़े हुए प्रति बिम्बों में भी नख सिख प्रिया रूप ही ज्ञात होता रहता है । वे ( पत्र प्रसूनों के प्रतिबम्ब पर प्रकट प्रिया प्रतिबिम्ब को देखकर भी ) संकोच वश प्रकट रूप से परिरम्भण कर नहीं सकते तब रस लम्पट भ्रमर ( अलि ) का रूप धारण कर छिप छिप कर दौड़ते हैं ; ( उनके श्रीमुख कमल के रस का पान करने के लिये ) किन्तु सुन्दरी कामिनि ( श्रीराधा ) चञ्चलता पूर्वक चमक कर उन्हें फिर फिर विशेष भ्रम में डाल देती है इस प्रकार निरन्तर एक ) रति रण का कलह मचा रही है । श्रीहित हरिवंश चन्द्र ( महाप्रभु सखी रूप से अपनी सहचरियों के प्रति ) कहते हैं- सखियो ! ( आज श्याम सुन्दर की आँखे प्रिया रूप की वास्तविकता को पहचानने में बड़ा धोखा खा रही हैं , अतः वे ) अपनी सारी समझों को उलटी ( विपरीत ) ही मानकर ( आँखों के भ्रम को मिटाने के लिये कि जाने इनमें ही कोई त्रटि तो नहीं है , अपनी ) आँखों में अंजन रेखा बनाते हैं । इसी से हे सजनी स्पष्ट है कि प्रीति – रीति वश स्याम यही ( ऐसी ही भाव मग्न श्याम ) कहलाता है ( कि जिसे अपने समक्ष दर्शन पर भी विश्वास न होकर भ्रम हो रहा है ।”)

बनी वृषभानु नंदिनी आजु।
भूषन वसन विविध पहिरे तन पिय मोंहन हित साजु।।

बनी वृषभानु नंदिनी आजु

आज श्रीवृषभानु नन्दिनी कैसी सुंदर बनी हैं। उन्होंने अपने प्रियतम मोहन के लिये विविध भूषण वस्त्र सज्जित करके आपने श्रीवपु में धारण कर रखे हैं। [1] वे (रास में) हाव भाव, लावण्य एवं भृकुटियों के नर्त्तन से युवति जनों के (सौन्दर्य्य) अभिमान को हरण कर रही हैं। (नृत्य में) ताल, भेद एवं अवघर स्वर की सूचना वे केवल अपने नूपुर किंकरिगणियों की झनकार (शब्द) मात्र से कर रही हैं। [2] श्री हित हरिवंश चन्द्र (महाप्रभु) कहते हैं आज अभिराम नव निकुंज में श्याम सुन्दर के साथ (आपका) बड़ा ही सुन्दर समाज (सामञ्जस्य) बना है। इस प्रकार यह जोड़ी (सर्वदा) रास एवं विलास से युत्तक रह कर अविचल रूप से विराज रही हैं - शोभित हैं। [3]

देखौ माई सुंदरता की सीवाँ।

देखौ माई सुंदरता की सीवाँ

श्रीहित सखी (श्री हित हरिवंश महाप्रभु) कहती हैं- हे सखियों ! सुन्दरता की सीमा (श्रीराधा) को तो देखो !जिस नागरी को देख कर समस्त व्रज की नव युवती गण (उसकी सौंदर्य राशि के सामने लज्जावश अपना) सिर झुका लेती हैं अर्थात् उनके रूप के सामने अपने रूप की लघुता स्वीकार करके सिर नीचा कर लेती हैं लजाकर । उन अपार श्रीप्रिया रूप की शोभा का वर्णन करने के लिये यदि कोई कोटि कोटि कल्पों तक जीवित रहकर कोटि कोटि जिह्वायें प्राप्त कर भी ले तो भी उस रुचि पूर्ण मुख कमल की शोभा का वर्णन वह नहीं कर सकता। (उससे वह शोभा कहते ही न आवेगी) देवलोक, भूलोक एवं रसातल के समस्त कवि कुल (समुदाय) की बुद्धि (उस रूप की महिमा का वर्णन) सुन सुन कर डरती रहती है कि हम उस अंग प्रत्यंग के सहज माधुर्य की उपमा दें तो दें किससे ? (अथवा श्रीहित जी कहते हैं कि जिसके वर्णन करने में समस्त कवि कुल की मति चौंधया रही है फिर मैं ही उस रूप की उपमा कैसे और किससे दूँ ?") श्रीहित हरिवंश चन्द्र (महाप्रभु) कहते हैं, मैं इतना ही कहूं -"श्रीश्याम सुन्दर तो प्रताप, रूप, गुण, आयु (वय) एवं बल सभी बातों में उजागर हैं-प्रगट हैं फिर भी वे रस समुद्र श्याम जिसकी भृकुटियों के इशारे के वशवर्त्ती पशु की भाँति निरन्तर लाचार से रहे आते हैं, (उस रूप की सीमा-श्रीराधा-को देखो, समझो)" ।

देखौ माई अबला के बल रासि।
अति गज मत्त निरंकुस मोंहन ;

देखौ माई अबला के बल रासि

(श्री हित सजनी ने अपनी सखियों से कहा ) "हे माई ! देखो ! अबला ( श्रीराधा ) के बल राशि को तो देखो ! जिन श्रीराधा को देखते ही अत्यंत मतवाले एवं निरंकुश गजराज वत मोहन लाल भी उनकी केश लट के एक ( अल्प ) बंधन मे अपने आप ( बिना प्रयत्न के ही ) बंध गये ! जब अभी अभी बिना प्रयास के अकस्मात ही उनकी मनोगति पंगु हो गयी, तब उस समय की क्या बात कहूँ जब वे ( श्रीप्रियाजी ) प्रियतम की ओर भौहें नचाकर-विलास पूर्वक देखेंगी ?" "उसी समय ( श्रीप्रियाजी ने अपनी कुंतल लट को जो कपोल पर आ पड़ी थी, सम्हालने के लिए ) केश संकेलने के बहाने से अपनी बाहुलता का दर्शन कराया, और मुस्कान पूर्वक अपने श्रीमुख को विकसित कर दिया; ( बस इतने से श्री लालजी की दशा प्रेम विव्हल हो गयी I यह सब देख श्री हित ) हरिवंश सजनी बोल उठीं-हाय ! हाय !! इस प्रीति की रीति मे भी बड़ी अनीति है ! अरी ! अब क्यों ( उन प्रेम विव्हल को ) व्यर्थ तन त्रास दे रही हो ? ( जो अपने आप घायल है उसे और भी छेड़ना क्या यही प्रेम राज्य की रीति है ?" )

नयौ नेह नव रंग नयौ रस, नवल स्याम वृषभानु किसोरी।

नयौ नेह नव रंग नयौ रस

आज नवल श्याम और नवल वृषभानु किशोरी में (परस्पर) नवीन स्नेह, नवीन आनन्द एवं नया ही रस भर रहा है। यहाँ श्याम सुन्दर का नया पीत पट है तो वहाँ वृषभानु किशोरी की नयी चूनरी । (उस नवल चूनरी को पहिने हुए) गोरी नयी ही नयी बूंदों से भींग रही हैं। जैसा नया, हरा-भरा और मनोहर वृन्दावन है, वैसे ही उसमें नये ही नये चातक, मोर और मयूरियां बोल रही हैं इधर नवल श्याम सुन्दर ने अपनी नयी मुरली में नयी ही गति से नवीन प्रकार का मलार राग छेड़ दिया है, जिसे सुनकर नये नये मेघ भी घिर कर घुमड़ आये हैं। श्रीश्याम सुन्दर के श्री अंगों में नये ही तो आभूषण हैं और सिर पर नया मुकुट विराज रहा है। वे नृत्य में उरप और तिरप नामक गतिया मन्द मंद ले रहे हैं। (इस नवीन सुख एवं समाज को देख कर) श्रीहित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु पाद (प्रीति पूर्वक) अपने मुख से आशीष देते हैं कि यह जोड़ी भूतल (इस लोक में मथुरा मण्डलान्तर्गत प्रकट श्रीवृन्दावन धाम) में क्रीड़ा करती हुई चिरजीवी रहे।)

हौं बलि जाँउ नगरी श्याम ।
ऐसैं ही रंग करौ निशि-बासर, वृन्दाविपिन कुटी अभिराम ॥

हौं बलि जाँउ नगरी श्याम

श्री हित सजनी आशीर्वाद देती हैं - "हे नागरी ! (श्री राधा) हे श्री श्याम (श्री कृष्ण) मैं आप पर बलिहार जाऊं ।(आप दोनों) वृंदावन की सुंदर कुंज कुटी में रात दिन निरंतर इसी प्रकार आनंदमय रंग विहार ही करते रहो ! निरंतर हास विलास एवं सूरत रस के सिंचन द्वारा पशुपति शिव जी के द्वारा जलाये गए (दग्ध किये गये) कामदेव को जीवन दान देते हुए हे सकल सुख धाम ! हमारे लोल लोचन रूप भ्रमरों को सफल कीजिए न !" (अर्थात आप दोनों स्वछन्द भाव से रति विलास करें और हम उसका दर्शन करके सुखी हों ।

यह जु एक मन बहुत ठौर करि, कहि कौनें सचु पायौ ।

यह जु एक मन बहुत ठौर करि

यह पद श्री हित हरिवंश महाप्रभु ने श्री हरिराम व्यास के प्रश्नों के उत्तर में कहा था, जिसके बाद श्री हरिराम व्यास जी उनके शिष्य बन गये थे। श्री हित महाप्रभु कहते हैं: इस एक मन को बहुत स्थानों पर लगाकर कहो किसने सुख पाया ? बहुत जगह मन को नचाने वाले को तो जार युवती ( व्यभिचारिणी ) की भाँति जहाँ तहाँ दुःख ही दुःख है , पिंगला वेश्या ने इसका स्पष्ट गान किया है । दो घोड़ों को एक साथ जोड़ कर भला हठ पूर्वक उन दोनों के ऊपर कौन बैठ कर उन्हें दौड़ा सकता है ? तुम्हीं बताओ गणिका से उत्पन्न पुत्र को कौन पिता अपनी गोद में ले ( अर्थात् वह किसका पुत्र कहा जाय ? ) श्रीहित हरिवंश चन्द्र महाप्रभुपाद कहते हैं यह विश्व प्रपञ्च एक दम झूठा है – असत् है और काल सर्प से ग्रसित है ( अर्थात् अवश्य विनाशी है , ) ऐसा अपने हृदय में समझ कर मैंने श्रीश्यामा श्याम पद कमल सङ्गी – रसिक भक्त जनों को अपना मस्तक झुका दिया अर्थात् उनके प्रति समर्पण पूर्वक मैंने उनका ही एक मात्र चरणाश्रय ग्रहण किया है ।

यह जु एक मन बहुत ठौर करि, कहि कौनें सचु पायौ ।
जहँ तहँ विपति जार जुवती लौं, प्रगट पिंगला गायौ ॥

यह जु एक मन बहुत ठौर करि, कहि कौनें सचु पायौ

यह पद श्री हित हरिवंश महाप्रभु ने श्री हरिराम व्यास के प्रश्नों के उत्तर में कहा था, जिसके बाद श्री हरिराम व्यास जी उनके शिष्य बन गये थे। श्री हित महाप्रभु कहते हैं: इस एक मन को बहुत स्थानों पर लगाकर कहो किसने सुख पाया ? बहुत जगह मन को नचाने वाले को तो जार युवती ( व्यभिचारिणी ) की भाँति जहाँ तहाँ दुःख ही दुःख है , पिंगला वेश्या ने इसका स्पष्ट गान किया है । दो घोड़ों को एक साथ जोड़ कर भला हठ पूर्वक उन दोनों के ऊपर कौन बैठ कर उन्हें दौड़ा सकता है ? तुम्हीं बताओ गणिका से उत्पन्न पुत्र को कौन पिता अपनी गोद में ले ( अर्थात् वह किसका पुत्र कहा जाय ? ) श्रीहित हरिवंश चन्द्र महाप्रभुपाद कहते हैं यह विश्व प्रपञ्च एक दम झूठा है – असत् है और काल सर्प से ग्रसित है ( अर्थात् अवश्य विनाशी है , ) ऐसा अपने हृदय में समझ कर मैंने श्रीश्यामा श्याम पद कमल सङ्गी – रसिक भक्त जनों को अपना मस्तक झुका दिया अर्थात् उनके प्रति समर्पण पूर्वक मैंने उनका ही एक मात्र चरणाश्रय ग्रहण किया है ।

कहा कहौं इन नैंननि की बात |

कहा कहौं इन नैंननि की बात

श्री लालजी अपनी प्रिय सखी हित सजनी से कहते है - सखी, मैं अपने इन नयनों की क्या बात कहूँ ? ये मेरे नयन भ्र्मर श्रीप्रिया मुख कमल के रस में अटक कर अब अन्यत्र कहीं जाते ही नहीं। जब जब कभी ये नयन पलक सम्पुट में अलक लटों के कारण अन्तराय (विक्षेप ) प्राप्त करते हैं, तब तब अत्यन्त आतुर होकर घबरा उठते है। ये रस लोलुप (नेत्र) लव निमेष काल के अन्तर से भी कम अन्तर को सैकड़ो कल्पों के समान अनुभव करते है।” श्रीहित हरिवंश चन्द्र कहते हैं कि (श्रीलालजी के नयन श्रीप्रियाजी के) कानों में कमल (आभूषण बनकर) आँखों में अंजन और कुचों के बीच में मृग मद बन कर भी नहीं समाते) अथार्त शांति तो पाते नहीं वंर उनके ह्रदय में रूप और प्रेम की तृषा बढ़ती ही रहती है। ) इसलिये श्याम वपु श्रीलालजी उनकी नाभि सरोवर के जलचर मीन बन जाने की याचना कर रहे हैं, (ताकि निरन्तर मीन वृति से श्रीप्रियाजी का रूप रस पान करने के लिये मिला करे, वह मेरा जीवन ही बन गया।)

खंजन मीन मृगज मद मेंटत,
कहा कहौं नैननिं की बातैं ।

खंजन मीन मृगज मद मेंटत

हे प्रिया, मैं तुम्हारे नेत्रों की बात क्या कहूँ ? यह अपनी चंचलता से खंजन का, तिरछी गति से मीन का, और भोलेपन से मृगछोना का मद चूर चूर कर रहे हैं । सुनो सुन्दरि ! यह बताओ कि तुमने इन नेत्रों से (इनकी ओर देखने वाले को) मोहित करने के एवं अपने वश करने के लिए कितने दावपेश सिखा रखे हैं ? ये तुम्हारे चंचल नेत्र बाँकी चितवन वाले हैं, निडर हैं, चपल हैं, कटीले हैं, अरुण हैं, श्याम और स्वेत (वर्णों से युक्त) हैं । यह तुमने ऐसी अद्भुत रचना किस प्रकार कर ली? यह दूसरे का सर्वस्व हरण करने में तनिक भी नहीं डरते एवं इनके कटाक्ष मीठी मदिरा के समान मादक हैं । हे सुंदरी, तुमने आज तक मेरी ओर किंचित् भी प्रसन्न एवं पूर्ण दृष्टि से नहीं देखा । (अतः ऐसी दृष्टि से देख लेना तो उचित ही है पर यदि न देखना चाहो तो) तुम्हारी इच्छा ! जो चाहो सो करो ! हे हंस कल गामिनि ! प्रेम के नाते से हमें यह सब स्वीकार है ।

काहे कौं मान बढ़ावतु है, बालक मृग - लोचनि ।

काहे कौं मान बढ़ावतु है

मानवती श्रीराधा के मान मोचन के लिये उनको विदग्धता पूर्वक समझाती हुई श्री हित सजनी कहती हैं “हे मृगछौना जैसे भोले एवं रसीले नेत्र वाली (श्रीप्रिया) मान का विस्तार क्यों कर रही हो ?” मैं इस समय भय से और संकोच से एक भी बात कहने में अपने को असमर्थ पा रही हूँ। मैं तो केवल इतना जानती हूँ कि श्रीश्यामघन मत्त-भाव से मुरली में तुम्हारा गान करते रहते हैं और सोते-जागते तुम्हारी आकृति का चिंतन करते रहते हैं। सखी भावापन्न श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि मन मोहन एवं रस-लम्पट आतुर प्रियतम के विरह जनित दुख को दूर करने वाली श्रीप्रिया, उनके कष्ट को दूर करो। (इस पद में सहचरी ने अपनी बात कहने में जिस भय एवं संकोच का उल्लेख किया है उसका निर्वाह उसने अंत तक किया है वह श्रीश्यामघनकी विरह-वेदना का तो पूरा चित्रण कर देती है किन्तु,अन्य पदों की भाँति, वह श्रीप्रिया से उनसे मिलने का आग्रह नहीं करती।)

सुधंग नाचत नवल किसोरी ।
थेई थेई कहति चहति प्रीतम दिसि, वदन चंद मनौं त्रिषित चकोरी ।।

सुधंग नाचत नवल किसोरी

नवल किशोरी राधिका आज सुधंग नृत्य नाच रही है और थेइ थेई कहते हुए अपने प्रियतम के मुख चन्द्र की ओर ऐसे देखती है जैसे ( रूप की ) प्यासी चकोरी । नृत्य गान की तान और उसके यथा स्थल बन्धान ( ठेका ) सहित नृत्य करने वाली मानमयी चतुरा नागरी श्रीप्रियाजी को देखकर प्रियतम श्याम सुन्दर हो हो होरी कहते ( हुए हर्ष से भर कर उनकी प्रशंसा करते ) हैं । श्रीहित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु पाद कहते हैं कि इस प्रकार इस नवल किशोरी ने अपने अंग प्रत्यंगों की ( हाव भाव पूर्ण ) मधुरिमा से प्रियतम श्रीलालजी का मन बरवश ( हठात् ) चुरा लिया है ।

नागरता की रासि किसोरी।

नागरता की रासि किसोरी

किशोरी राधिका सुन्दरता की राशि हैं। इन्होंने नव नागर समूह के भी सिरमौर श्याम सुन्दर को अपनी चितवन और ललितभाव से मुख मोड़ने की क्रिया से ही वश में कर लिया है। इनका रूप अत्यन्त रुचिर है और अङ्ग अङ्ग में माधुर्य है। ये व्रज गोरी विना भूषणों के ही भूषित है अर्थात् अत्यन्त रमणीय है। यह सुधङ्ग नृत्य के प्रत्येक अङ्ग में कुशल तो है ही अपितु एकान्तिक कोक विलास के रस समुद्र में भी प्रतिक्षण सराबोर सी हैं। इन्होंने परम चञ्चल रसिक मन मोहन भ्रमर के मन को अपने कनक जैसे कुच कमलो की कोर से ही अटका लिया है और प्रियतम के युगल नयन खञ्जन पक्षियों को भी (अपने रूप माधुर्य्य आदि) अनेक बन्धन डोरियों से बाँध रखा है।श्रीहित हरिवंशचन्द्र महाप्रभु पाद (सखी रूप से) कहते है इन परम सौन्दर्य मयी श्रीराधा ने अपने उदर रूप भूमि में स्थित नाभि कुण्डिका में कुछ एक मधुर एवं मादक रस घोल रखा है, जिसे सुन्दर शिरोमणि श्रीलालजी वेदों की भी सुदृढ़ मर्यादा-सीमाओं को तोड़कर उल्लंघन करके पी रहे हैं।