प्रीति न काहु की कानि बिचारै
प्रीति न काहु की कानि बिचारै ।
मारग अपमारग विथकित मन को अनुसरत निवारै ।।
ज्यौं सरिता साँवन जल उमगत सनमुख सिंधु सिधारै ।
ज्यौं नादहि मन दियें कुरंगनि प्रगट पारधी मारै ।।
(जै श्री) हित हरिवंश हिलग सारँग ज्यौं सलभ सरीरहि जारै ।
नाइक निपून नवल मोहन बिनु कौन अपनपौ हारै ।।
Hindi Translation:
प्रीति किसी की मर्यादा नहीं मानती । अरे ! प्रेम से विशेष विवश मन को किसी मार्ग कुमार्ग की ओर जाने से कौन निवारण कर सकता है ? श्रावण मास के जल से उमंगे भरती हुई नदी जैसे सीधे समुद्र की ही ओर दौड़ती है...
Raag:
sāraṃga
Vaani:
श्री हित चौरासी जी